ओटीटी (ओवर द टॉप) प्लेटफॉर्म्स ने भारतीय दर्शकों की सोच और पसंद को एक नई दिशा दी है। अब सिनेमा केवल बड़े परदे तक सीमित नहीं रहा, बल्कि छोटे परदे पर गहरी और विविध कहानियाँ जगह बना रही हैं। दर्शक अब सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि विचार और यथार्थ से जुड़ाव चाहते हैं। यह लेख दर्शकों की बदलती सोच, ओटीटी के बदले तेवर और समाज में इसकी बढ़ती भूमिका पर केंद्रित है। ओटीटी अब सिर्फ विकल्प नहीं, विचारों का नया सिनेमाघर बन गया है – एक ऐसा मंच, जहाँ कहानी अब दिल से कही जाती है, न कि बस दिखावे के लिए।
वो समय दूर नहीं जब सिनेमा हॉल में सीट बुक कराना किसी उत्सव से कम नहीं होता था। पॉपकॉर्न, ठहाके और पर्दे पर सितारों की चमक ही मनोरंजन का पर्याय मानी जाती थी। लेकिन समय बदला, दुनिया बदली और साथ ही बदले दर्शक। ओटीटी प्लेटफॉर्म्स ने मनोरंजन की दुनिया में न केवल तकनीकी बदलाव लाया, बल्कि विषयवस्तु, प्रस्तुति और दर्शक की सोच में भी क्रांतिकारी परिवर्तन किया। अब परदा छोटा हो गया है, लेकिन सोच बड़ी। आज ओटीटी हमारे समाज का दर्पण बन चुका है, जिसमें हमारी जड़ें, समस्याएं, विरोधाभास, स्वप्न और संघर्ष सब कुछ स्पष्ट दिखता है।
ओटीटी की यात्रा कोई अचानक आई लहर नहीं है, यह एक लंबा सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन है। कोविड-19 ने इसे गति दी, जब थिएटर बंद थे और हर कोई घरों में कैद। वहीं से शुरू हुई एक ऐसी क्रांति, जिसने सिनेमा के मायनों को बदल कर रख दिया। ‘मिर्जापुर’, ‘पाताल लोक’, ‘दिल्ली क्राइम’, ‘फैमिली मैन’ जैसी सीरीज ने न केवल व्यूअरशिप के रिकॉर्ड तोड़े बल्कि यह भी दिखाया कि दर्शक अब सिर्फ चमक-दमक नहीं चाहता, उसे यथार्थ चाहिए। अब दर्शक केवल मनोरंजन नहीं, आत्मपरीक्षण भी चाहता है।
ओटीटी की सबसे बड़ी देन यही है कि उसने कहानी को केंद्र में रखा, न कि चेहरों को। बड़े सितारों के बिना भी कई कहानियाँ दर्शकों के दिल में घर कर गईं। ‘गुल्लक’, ‘पंचायत’, ‘कोटा फैक्ट्री’ जैसी सीरीज इसका प्रमाण हैं। ये वो कहानियाँ थीं जो हमारे आसपास की ज़िंदगी से निकली थीं — गाँव की गलियों, परिवार की उलझनों, युवाओं की आकांक्षाओं और सामाजिक असमानताओं से। ओटीटी पर कोई भाषा या क्षेत्र बाधा नहीं बना। तमिल, तेलुगु, मलयालम, मराठी, बंगाली जैसी भाषाओं की कहानियाँ भी राष्ट्रीय पहचान पाने लगीं। इससे देश की सांस्कृतिक विविधता और समावेशिता को नया मंच मिला।
ओटीटी का सबसे साहसी पक्ष यह है कि इसने उन विषयों को भी उठाया जिन्हें मुख्यधारा के सिनेमा में अक्सर नजरअंदाज किया गया। जैसे – जातीय भेदभाव, महिला सशक्तिकरण, LGBTQ+ मुद्दे, मानसिक स्वास्थ्य, ग्रामीण भारत की असलियत, धार्मिक कट्टरता, न्याय व्यवस्था की विसंगतियाँ आदि। इन विषयों को लेकर बनी कहानियाँ केवल मनोरंजन नहीं करतीं, बल्कि हमें सोचने पर विवश करती हैं। ‘दिल्ली क्राइम’ में निर्भया कांड की पड़ताल हो या ‘लीला’ में तानाशाही व्यवस्था की कल्पना – ओटीटी ने सामाजिक चेतना को झकझोरने का काम किया है।
स्त्रियों के चित्रण के लिहाज़ से भी ओटीटी ने एक नई परिभाषा गढ़ी है। यहाँ स्त्रियाँ केवल प्रेमिका या माँ की भूमिकाओं में सीमित नहीं रहीं, बल्कि वे निर्णायक, विद्रोही और नेतृत्वकारी भूमिकाओं में सामने आईं। ‘आर्या’ की सुष्मिता सेन, ‘सास बहू और फ्लेमिंगो’ की डॉन महिलाएँ, या ‘ह्यूमन’ की डॉक्टर्स — इन सबने यह साबित किया कि स्त्रियों की कहानियाँ भी उतनी ही रोमांचक, गहन और सफल हो सकती हैं जितनी किसी पुरुष नायक की। यह बदलाव दर्शकों की बदलती सोच का ही परिणाम है। अब वे स्त्रियों को अबला नहीं, सक्षम और विचारशील रूप में देखना चाहते हैं।
ओटीटी की सफलता ने यह भी सिद्ध किया कि बड़ा बजट जरूरी नहीं, बड़ी सोच जरूरी है। सीमित संसाधनों में बनी कहानियाँ भी दर्शकों के मन को छू सकती हैं। अब कोई फिल्म या सीरीज इसलिए नहीं देखी जाती क्योंकि उसमें अमुक सुपरस्टार है, बल्कि इसलिए देखी जाती है क्योंकि उसकी स्क्रिप्ट दमदार है। एक प्रकार से यह लेखकों, संवादकारों और तकनीकी कलाकारों का पुनर्जागरण काल है। जिनकी प्रतिभा पहले पर्दे के पीछे छिपी रहती थी, अब वही प्रमुखता से सामने आ रही है।
हालांकि यह भी सही है कि ओटीटी पर पूरी तरह स्वतंत्रता के नाम पर कभी-कभी अश्लीलता, हिंसा या गाली-गलौज की भरमार भी दिखती है। शुरुआत में रचनात्मक स्वतंत्रता के नाम पर निर्माताओं ने कई बार सीमाएं पार कीं, जिससे सामाजिक स्तर पर विरोध भी हुआ। लेकिन अब धीरे-धीरे यह माध्यम परिपक्व हो रहा है। सरकार भी कुछ दिशा-निर्देशों के माध्यम से इसकी निगरानी की योजना बना रही है। जरूरी यह है कि सेंसर के नाम पर इसकी मौलिकता और रचनात्मक आज़ादी का गला न घोंटा जाए। दिशा जरूरी है, लेकिन दमघोंटू नियंत्रण नहीं।
ओटीटी ने अभिनय की दुनिया में भी लोकतंत्र ला दिया है। छोटे शहरों से आए संघर्षरत कलाकारों को वह मंच मिला, जो पहले केवल ‘नेपोटिज्म’ की दीवारों के पीछे छिपा रहता था। अब ‘स्टारकिड’ ही नहीं, ‘किरदारकिड’ भी दर्शकों का चहेता बन सकता है। ‘जेठालाल’ या ‘मुन्ना भैया’ जैसे किरदार अब राष्ट्रीय पहचान बन जाते हैं, चाहे वे असली जीवन में किसी मशहूर फिल्मी परिवार से ताल्लुक रखते हों या नहीं।
आज ओटीटी केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं, बल्कि एक विचार मंच बन चुका है। यहाँ समाज के हर वर्ग को, हर आवाज़ को, और हर सवाल को जगह मिल रही है। गाँव की चुप्पी से लेकर शहर की चीख तक, अब हर भावना को अभिव्यक्ति मिल रही है। यह वह जगह है जहाँ दर्शक सिर्फ दर्शक नहीं रह गया है, वह निर्णयकर्ता बन गया है। अब वह ताली केवल अभिनय पर नहीं, सच्चाई पर बजाता है।
ओटीटी के बदले तेवर यह भी दिखाते हैं कि भारत का दर्शक अब वैश्विक संदर्भ में सोचना चाहता है। वह कोरियन ड्रामा भी देखता है और स्पेनिश सीरीज ‘मनी हाइस्ट’ भी। वह केवल भारतीय नहीं, वैश्विक सोच वाला उपभोक्ता बन चुका है। इससे भारतीय ओटीटी कंटेंट की गुणवत्ता पर भी दबाव बढ़ा है कि वह केवल घरेलू मसाले से नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर के कंटेंट से प्रतिस्पर्धा करे।
भविष्य में ओटीटी का दायरा और बढ़ेगा। अब यह केवल मनोरंजन तक सीमित नहीं रहेगा, बल्कि शिक्षा, शोध, संस्कृति और स्थानीय भाषाओं के संरक्षण का भी माध्यम बन सकता है। यदि सही दिशा में इसका उपयोग हो, तो यह भारत की सॉफ्ट पावर का सबसे मजबूत स्तंभ बन सकता है।
इस बदलते परिदृश्य में हमारी भूमिका केवल दर्शक की नहीं, भागीदार की होनी चाहिए। हमें गुणवत्ता को चुनना होगा, मसाले को नहीं। हमें सच्चाई के साथ खड़ा होना होगा, न कि केवल चीखते संवादों और फर्जी थ्रिल के। जब दर्शक जिम्मेदार हो, तो माध्यम भी जिम्मेदार बनता है।
अंततः यही कहा जा सकता है कि ओटीटी ने पर्दे को तो छोटा किया, लेकिन विचारों और अनुभवों को विशाल बना दिया है। अब हर कोने की कहानी कहने वाला एक मंच है, जहाँ कोई हाशिए पर नहीं। ओटीटी परदे से परे सोच का नया सिनेमाघर है — एक ऐसा मंच, जहाँ सिनेमा केवल आंखों से नहीं, आत्मा से देखा जाता है।
— डॉ. सत्यवान सौरभ —
































































































































































































































































































































































































































































































































































